संसद और विधानसभा के अध्यक्ष के निर्णय की न्यायिक समीक्षा संभव: सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह बताया कि संसद और विधानसभा के अध्यक्ष के निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. निर्णय में स्पष्ट किया गया कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय संसद और विधानसभा सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित अध्यक्ष के आदेश की न्यायिक समीक्षा कर सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर और न्यायाधीश न्यायमूर्ति सीरिक जोसेफ की पीठ ने अक्टूबर 2010 में कर्नाटक में येद्दयुरप्पा सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने की पूर्व संध्या पर ग्यारह भारतीय जनता पार्टी और पांच निर्दलीय विधायकों को अयोग्य ठहराने वाले कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष के आदेश को गलत करार देते हुए इसके कारण जारी किये. न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर और न्यायाधीश न्यायमूर्ति सीरिक जोसेफ की पीठ ने अपने निर्णय में बताया कि निर्दलीय विधायकों को सरकार से समर्थन वापस लेने और किसी और को समर्थन देने के आधार पर दलबदल कानून के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार कानून में किसी सदस्य के समर्थन देने या वापस लेने पर कोई रोक नहीं है. पीठ ने स्पष्ट किया कि सत्ताधारी दल को समर्थन देने या उसकी बैठकों और रैलियों में निर्दलियों के भाग लेने से यह साबित नहीं होता कि वे उस राजनैतिक दल में शामिल हो गए हैं. पीठ ने कर्नाटक के विधानसभा अध्यक्ष का विधायकों का अयोग्य ठहराने का आदेश दुर्भावना पूर्ण बताया. साथ ही निर्णय में यह बताया कि कर्नाटक के विधानसभा अध्यक्ष सिर्फ फ्लोर टेस्ट के पहले विधायकों को अयोग्य ठहराना चाहते थे इसीलिए उन्होंने इतनी जल्दबाजी में कार्यवाही की जिससे विधायकों को अपनी बात रखने का पर्याप्त मौका नहीं मिला.
राज्यों में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के समान हो मनरेगा की मजदूरी: सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को विभिन्न राज्यों में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के बराबर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत न्यूनतम मजदूरी दर तय करने के लिए विचार करने का निर्देश दिया. साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न श्रमिक संगठनों को नोटिस भी जारी किया और दो सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सी जोसेफ और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने 23 जनवरी 2012 को मनरेगा की मजदूरी और विभिन्न राज्यों में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के संबंध में निर्णय दिया. खंडपीठ के निर्णय के अनुसार मजदूरी एक लाभार्थी का विधान है, फिर न्यूनतम मजदूरी और मनरेगा अधिनियम के अंतर्गत दी जाने वाली मजदूरी में विरोधाभास नहीं होना चाहिए.
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 23 सितंबर 2011 के एक निर्णय में बताया था कि मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी, राज्य सरकारों द्वारा कृषि श्रमिकों के लिए निर्धारित की गई न्यूनतम मजदूरी से कम नहीं होनी चाहिए. उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी बताया था कि जिन लोगों ने कम पैसे में काम किया है उन्हें केंद्र को एरियर देना चाहिए. केंद्र सरकार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी.ज्ञातव्य हो कि केंद्रीय रोजगार योजना के तहत पारिश्रमिक अलग-अलग राज्यों में 118 रुपये से 181 रुपये के बीच है. केंद्रीय रोजगार योजना के तहत पारिश्रमिक छह राज्यों (आंध्र प्रदेश, राजस्थान, केरल, कर्नाटक, मिजोरम और गोवा) में अधिसूचित न्यूनतम दैनिक मजदूरी से कम है.
उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया सार्वजनिक किया जाना चाहिए: केंद्रीय सूचना आयोग
उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और इसमें संशोधन के किसी भी प्रस्ताव को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. केंद्रीय सूचना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के तर्क को खारिज करते हुए यह निर्णय 4 जनवरी 2012 को दिया.
केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने निर्णय में बताया कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और इसमें संशोधनों हेतु प्रधान न्यायाधीश व कानून मंत्रालय के बीच हुई वार्ता को सार्वजनिक किया जाए. मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा ने इसके पीछे तर्क दिया कि आम नागरिकों को यह जानकारी होनी चाहिए कि इस विषय से संबंधित प्रमुख पक्षों यानी भारत सरकार व प्रधान न्यायाधीश के मत क्या हैं?
सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित जानकारी सार्वजनिक करने पर रोक का तर्क देते हुए बताया कि आवेदक ने जो जानकारी मांगी है वह आरटीआइ दायरे में नहीं आती है. जबकि केंद्रीय सूचना आयोग के अनुसार भारत के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को संवैधानिक या वैधानिक रूप से इस जानकारी को रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह आरटीआइ कानून की धारा 2 (जे) के दायरे में नहीं आती है. ज्ञातव्य हो कि सूचना अधिकार कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने सर्वोच्च न्यायालय में सूचना अधिकार कानून के तहत याचिका दायर की थी. याचिका में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया के संशोधित ज्ञापन के कानून मंत्रालय के मसौदे पर भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के जी बालकृष्णन एवं कानून मंत्री के बीच हुए संवाद को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी.
पूर्वोत्तर राज्यों के 6 जनजातियों को संवैधानिक अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया
संसद ने पूर्वोत्तर राज्यों मणिपुर और अरूणाचल प्रदेश के 6 आदिवासियों को संवैधानिक अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मंजूरी 26 दिसंबर 2011 को प्रदान की. इसके साथ ही गेलांग जो मूल शब्द गालो का विकृत शब्द है, उसे सही कर दिया गया.
संवैधानिक (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक 2011 मणिपुर के 6 समुदायों रोंगमेई, इनपुट, लियांगमेई, जेमी, थंगल और मेट को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देगा. इस विधेयक ने मूल संवैधानिक (अनुसूचित जनजाति) आदेश 1950 में संशोधन की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा किया.
संवैधानिक (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक 2011 मणिपुर के 6 समुदायों रोंगमेई, इनपुट, लियांगमेई, जेमी, थंगल और मेट को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देगा. इस विधेयक ने मूल संवैधानिक (अनुसूचित जनजाति) आदेश 1950 में संशोधन की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा किया.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में खाद्य सुरक्षा विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी
सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराने हेतु केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में खाद्य सुरक्षा विधेयक को 18 दिसंबर 2011 को मंजूरी प्रदान की. खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली 75 जबकि शहरी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत आबादी को सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराना है. खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत ग्रामीण और शहरी गरीबों को प्रति व्यक्ति 7 किलो प्रति माह के हिसाब से अनाज मिलेगा. कानून में 5 व्यक्तियों की इकाई को परिवार माना गया है. केंद्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक के क्रियान्वयन के प्रथम वर्ष के लिए 95000 करोड़ रुपये की सब्सिडी का अनुमान लगाया है. यह अनुमान तीसरे साल तक 1.50 लाख करोड़ रुपये हो जाना है. खाद्य सुरक्षा विधेयक के क्रियान्वयन हेतु तीसरे वर्षों में कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए गोदाम बनाने पर 50000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि की आवश्यकता होगी. खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों, गरीबी रेखा से ऊपर के परिवारों और अंत्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले वर्ग के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है. खाद्य सुरक्षा विधेयक में प्राथमिकता वाले और सामान्य उपभोक्ता वर्ग के तहत जनता को बांटा गया है. प्राथमिकता वर्ग में आने वाले गरीबों को एक रुपये प्रति किलो की दर पर मोटा अनाज, दो रुपये किलो के हिसाब से गेहूं और 3 रुपये किलो के हिसाब से चावल दिया जाएगा, जबकि सामान्य उपभोक्ता वर्ग को अनाज के समर्थन मूल्य का 50 फीसदी देना होगा. जिन गरीबों को अनाज दिया जाना है उनकी संख्या सामाजिक आर्थिक जनगणना के नतीजे आने के बाद तय की जानी है.
खाद्य सुरक्षा विधेयक के मुख्य प्रावधान:
1. 75 फीसदी ग्रामीण आबादी तथा 50 फीसदी शहरी परिवारों को दायरे में रखा गया है.
2. ग्रामीण और शहरी गरीबों को सात किलो अनाज का अधिकार दिया गया है. इसके तहत तीन रुपये प्रति किलो की दर से चावल, दो रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपये प्रति किलो की दर से मोटे अनाज दिया जाएगा.
3. ग्रामीण और शहरी गरीबों के अलावा सामान्य श्रेणी में हर व्यक्ति को तीन किलो अनाज प्रति माह दिया जाएगा और कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी होगी.
4. जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर शिकायत निपटारा प्रक्रिया का प्रावधान है.
5. खाद्य सुरक्षा विधेयक के प्रथम वर्ष का बजट 95000 करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव है.
6. खाद्य सुरक्षा विधेयक के अंतर्गत केंद्र सरकार ने कृषि को बढ़ावा देने के लिए 110000 करोड़ रुपए का निवेश करने का प्रस्ताव रखा है.
7. बच्चे को दूध पिलाने वाली महिलाओं को सरकार की तरफ से 1000 रुपए प्रति माह दिए जाने का प्रावधान है.
8. बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं, आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बूढ़े लोगों को पका हुआ भोजन प्रदान किया जाएगा.
1. 75 फीसदी ग्रामीण आबादी तथा 50 फीसदी शहरी परिवारों को दायरे में रखा गया है.
2. ग्रामीण और शहरी गरीबों को सात किलो अनाज का अधिकार दिया गया है. इसके तहत तीन रुपये प्रति किलो की दर से चावल, दो रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपये प्रति किलो की दर से मोटे अनाज दिया जाएगा.
3. ग्रामीण और शहरी गरीबों के अलावा सामान्य श्रेणी में हर व्यक्ति को तीन किलो अनाज प्रति माह दिया जाएगा और कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी होगी.
4. जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर शिकायत निपटारा प्रक्रिया का प्रावधान है.
5. खाद्य सुरक्षा विधेयक के प्रथम वर्ष का बजट 95000 करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव है.
6. खाद्य सुरक्षा विधेयक के अंतर्गत केंद्र सरकार ने कृषि को बढ़ावा देने के लिए 110000 करोड़ रुपए का निवेश करने का प्रस्ताव रखा है.
7. बच्चे को दूध पिलाने वाली महिलाओं को सरकार की तरफ से 1000 रुपए प्रति माह दिए जाने का प्रावधान है.
8. बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं, आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बूढ़े लोगों को पका हुआ भोजन प्रदान किया जाएगा.
न्यायालय सड़क दुर्घटना पीड़ितों को ज्यादा मुआवजा दिलाने में सक्षम: सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह बताया कि न्यायालय सड़क दुर्घटना पीड़ितों को ज्यादा मुआवजा दिलाने में सक्षम हैं. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी व न्यायमूर्ति एके गांगुली की पीठ ने यह निर्णय 1 नवंबर 2011 को दिया, जिसमें पीड़ित की 4.20 लाख की मांग के मुकाबले 5.62 लाख रुपये का मुआवजा देने का बीमा कंपनी को आदेश दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अपने निर्णय में बताया कि सड़क दुर्घटना पीड़ित इंसान सिर्फ इलाज खर्च, नौकरी की कमी या विकलांगता के अलावा भी अन्य कष्ट झेलता है, जिसके लिए वह मुआवजे का हक़दार है. अन्य कष्टों में सर्वोच्च न्यायालय ने विकलांगता के कारण विवाह की कम हुई संभावनाओं व मानसिक पीड़ा को जोड़ा. ज्ञातव्य हो कि वर्ष 1996 में संजय बाथम सड़क दुघर्टना में घायल होकर लकवाग्रस्त हो गए थे. मई 1996 में संजय बाथम ने वाहन दुर्घटना न्यायाधिकरण में याचिका दाखिल कर 4.20 लाख रुपये मुआवजे की मांग की थी. जबकि वाहन दुर्घटना न्यायाधिकरण ने मात्र 25 हजार मुआवजा दिलाया था. इसमें 5 हजार कमाई बंद होने के, 10 हजार इलाज खर्च के, 5 हजार दुर्घटना की पीड़ा के और 5 हजार विशेष आहार के मद में थे. संजय बाथम ने वाहन दुर्घटना न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मुआवजे राशि को बढ़ाकर ढाई लाख रूपये कर दी थी. संजय बाथम ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में पीड़ित संजय बाथम द्वारा मांगी गई मुआवजे राशि (4.20 लाख रुपये) को बढ़ाते हुए इसे 5.62 लाख रुपये कर दिया, जिसमें पीड़ित की कमाई बंद होने के लिए 162000 रुपये, भविष्य में इलाज पर होने वाले खर्च के लिए 2 लाख रुपये और विकलांगता के कारण विवाह की कम हुई संभावनाओं व मानसिक पीड़ा के लिए 2 लाख रुपये और मुआवजे में जोड़ दिए.
विदेशी कंपनियां भी भारतीय उपभोक्ता अदालतों के प्रति जवाबदेह: सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में बताया कि सेवा में खामी रहने पर विदेशी कंपनियां भी भारतीय उपभोक्ता अदालतों के प्रति जवाबदेह हैं. 19 सितंबर 2011 को दिए इस निर्णय के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग (NCDRC: National Consumers Disputes Redressal Commission, एनसीडीआरसी) द्वारा लेबनान की अंतरराष्ट्रीय कूरियर कंपनी ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज पर मुंबई की एक कंपनी यूनिवर्सल एक्सपोर्ट्स को 71615.75 डॉलर जुर्माना देने के निर्णय को सही ठहराया. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एचएल दत्तू की पीठ ने अपने निर्णय में बताया कि उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत उपभोक्ता की परिभाषा में आने वाले ग्राहक सेवा में खामी का मामला उपभोक्ता अदालतों और नियमित अदालतों में लेकर जा सकते हैं. पीठ ने लेबनान की अंतरराष्ट्रीय कूरियर कंपनी ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज की एनसीडीआरसी के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका ख़ारिज कर दी.ज्ञातव्य हो कि राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग (NCDRC: National Consumers Disputes Redressal Commission, एनसीडीआरसी) ने ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज को यूनिवर्सल एक्सपोर्ट्स को 71615.75 डॉलर जुर्माना देने के अलावा एक लाख रुपये का अतिरिक्त जुर्माना देने का निर्देश दिया था. ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज ने यूनिवर्सल एक्सपोर्ट्स द्वारा कपड़ों की एक खेप को अगस्त 1992 में स्पेन में गलत पते पर डिलीवर कर दी थी.इसी संबंध में यूनिवर्सल एक्सपोर्ट्स ने ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज पर मुकदमा दायर किया था, जिस पर राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग ने अपना निर्णय दिया था. सर्वोच्च न्यायालय में ट्रांस मेडिटेरनियन एयरवेज ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग के निर्णय के विरोध में याचिका दायर की थी और तर्क दिया कि वारसा और हेग संधि के तहत भारतीय उपभोक्ता अदालतों को अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ निर्णय करने का अधिकार नहीं है.
संदिग्ध निष्ठा वाले न्यायाधीशों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति प्रदान की जाए: सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय ने 13 सितंबर 2011 को संदिग्ध निष्ठा से संबंधित न्यायाधीशों के मामले में अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्ति का निर्णय दिया. सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने इस निर्णय में यह भी बताया कि संदिग्ध निष्ठा वाले न्यायाधीशों को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया जा सकता है, भले ही उनकी उम्र 50 वर्ष न हुई हो.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएम पांचाल और न्यायमूर्ति एचएल गोखले की पीठ ने तीन न्यायाधीशों आरएस वर्मा, रोहिल्ला और पीडी गुप्ता की संदिग्ध निष्ठा पर की गई सेवानिवृत्ति को कायम रखते हुए उपरोक्त व्यवस्था दी.
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अपने निर्णय में बताया कि दिल्ली उच्चतर न्यायिक सेवाओं के मूलभूत नियम यह पूर्ण अधिकार देते हैं कि दिल्ली उच्च न्यायालय की सलाह पर ऐसे अधिकारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्त कर दिया जाए, भले ही उनकी आयु 55 वर्ष से कम क्यों न हो. साथ ही पीठ ने यह भी तर्क दिया कि ऐसा कोई भी नियम नहीं है जिसमें किसी अधिकारी को इस आधार पर 55 वर्ष से पहले अनिवार्य सेवानिवृत्ति न दी जाए, जबकि उससे जुड़ा संदिग्ध निष्ठा का मामला 50 वर्ष की उम्र में सामने आया हो.
दिल्ली उच्चतर न्यायिक सेवा संहिता के एफआर 56 (जे) के तहत किसी भी सरकारी कर्मचारी को, जो 35 वर्ष की आयु से पहले नौकरी में शामिल होता है तो उसे 50 वर्ष से पहले अनिवार्य सेवानिवृत्त किया जा सकता है, अन्य मामले में यह सीमा 55 वर्ष की है.
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