Sunday, 19 August 2012


किसने रोकी विकास की राह?
 
किसने रोकी विकास की राह? 
स्वाधीनता दिवस के मौके पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक विकास की सुस्त रफ्तार के लिए एक घटक की कमी को जिम्मेदार ठहराया- 'आम सहमति'। उनका कहना था, 'जहां तक देश के भीतर तीव्र आर्थिक विकास के लिए माहौल तैयार करने की बात है तो मेरा मानना है कि हम ऐसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अनेक मामलों में राजनीतिक आम सहमति का अभाव है।'

ज्यादातर लोगों ने उनके इस वक्तव्य को सुनकर यही सोचा कि प्रधानमंत्री अपने नेतृत्व में यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान विकास दर में आई नाटकीय कमी (जो आधा दशक पहले ९.५ फीसदी के मुकाबले गिरकर ५.३ फीसदी तक रह गई है) के लिए जनतंत्र की मजबूरियों को ही दोषी ठहरा रहे हैं। लेकिन लोग यह नहीं समझ पाए कि प्रधानमंत्री के इस निरापद से लगने वाले वक्तव्य में कई चीजें निहित हैं।

पहली बात, चूंकि ज्यादातर आर्थिक कानून संसद में बहुमत के निर्णय से बनाए जाते हैं और सत्ताधारी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के पास पर्याप्त संख्याबल है, लिहाजा सहज ही यह समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री जिस 'आम सहमति की कमी' की बात कर रहे हैं, वह कोई आम राष्ट्रव्यापी व्याधि नहीं, वरन उनके ही गठबंधन की एक विशिष्ट समस्या है। और गठबंधन के भीतर आम सहमति बनाने की जिम्मेदारी किसकी है? जाहिर तौर पर यूपीए चेयरपर्सन की। और चेयरपर्सन कौन हैं? कांग्रेस पार्टी की सुप्रीमो सोनिया गांधी। यानी परोक्ष तौर पर मनमोहन यही कह रहे थे कि यदि किसी को आर्थिक विकास की धीमी गति के लिए जिम्मेदार ठहराना ही है तो सोनिया गांधी को ठहराया जाए, उन्हें नहीं।

क्या वह सही हैं? काफी हद तक। सोनिया गांधी ने यूपीए को तो छोडि़ए, खुद अपनी पार्टी के सदस्यों को आर्थिक विकास के लिए प्रेरित करने का जिम्मा कभी नहीं उठाया। जरा याद करें कि आपने पिछली बार कब सोनिया गांधी को आर्थिक विकास हेतु ओजस्वी ढंग से बोलते हुए सुना था? कब आपने उन्हें नए कारोबारी निवेश को प्रोत्साहित करने; सड़कों, बंदरगाहों व विद्युत संयंत्रों के निर्माण के लिए या जैसा कि मनमोहन सिंह कहते हैं, 'जुझारू क्षमता' को उभारने के लिए बोलते हुए सुना? कभी नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि सोनिया को लगता है कि विकास तो खैर यूं भी होता रहेगा और उन्हें इसके बजाय बांटने और सिर्फ बांटने की चिंता करनी चाहिए।

यदि आप यूपीए को एक घर-परिवार की तरह देखें तो मनमोहन सिंह इसके रसोइए हैं, जिन्हें रोज भोजन पकाकर देना है, ताकि सोनिया गांधी अपनी १२ सदस्यीय राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (जिसकी वह चेयरपर्सन हैं) की मदद से यह तय कर सकें कि इसका वितरण किस तरह किया जाए। उन्होंने पिछले साल सितंबर में अपने एक भाषण में इस व्यवस्था को कुछ इसी तरह परिभाषित किया था- 'हमारे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था विकास की राह पर कहीं ज्यादा तेज रफ्तार से बढ़ी है। यह उच्च आर्थिक विकास ही है, जिसने हमें अपने समाज कल्याण कार्यक्रमों व योजनाओं की फंडिंग के लिहाज से सक्षम बनाया।'

उनकी यह राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलकर बनी है। पिछले दो साल में एनएसी ने सरकार को २४ पत्र भेजे, जिनमें से दस इस बारे में थे कि 'मनरेगा' या खाद्य सुरक्षा जैसी विभिन्न योजनाओं पर धन किस तरह खर्च किया जाए। इस परिषद का काफी कुछ काम उपयोगी है, लेकिन इसके फरमान से किसी को यह शक नहीं रह जाता कि कांग्रेस पार्टी की खातिर एनएसी का प्राथमिक राजनीतिक उद्देश्य धन बांटने की ऐसी योजनाएं तैयार करना है, जिससे इसके मतदाता खुश रह सकें। मुझे नहीं लगता कि विकास दर शून्य होने की स्थिति में भी एनएसी सरकार को एक भी पत्र लिखने की जहमत उठाएगी, जबकि दुनियाभर में विकास ही गरीबी घटाने की सबसे बड़ी संचालक शक्ति है।

इसी वजह से मनमोहन सिंह असहाय रह जाते हैं। उनसे ९-१० फीसदी की दर से आर्थिक विकास के लिए माहौल तैयार करने की उम्मीद की जाती है ताकि एनएसी के सपनों के लिहाज से बड़ी-बड़ी कल्याणकारी योजनाओं के लिए धन का इंतजाम हो सके। लेकिन वह बाजार के दरवाजे खोलने, निजी निवेश (चाहे भारतीय हो या विदेशी) के अंतप्र्रवाह को बढ़ावा देने और राजकोषीय घाटे को कम रखे बगैर ऐसा नहीं कर सकते। इसके लिए सख्त राजनीतिक फैसलों की दरकार होती है, चाहे ये रिटेल या पेंशन फंड के लिए बाजारों को खोलने से जुड़े हों या फिर पेट्रोल पर सब्सिडी घटाने से। जहां तक सोनिया का सवाल है तो वह अपनी राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल इनमेंसे किसी भी मसले पर आम सहमति बनाने के लिए नहीं करेंगी, क्योंकि इससे उनका वोट बैंक खतरे में आ जाएगा। यहां तक कि वह अपनी राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल मनमोहन की कैबिनेट के कुछ भ्रष्टतम सदस्यों को बाहर करने के लिए भी नहीं कर सकतीं या करेंगी, जिसके चलते घोटाले होते हैं, कारोबारी माहौल खराब होता है और निवेश की रफ्तार भी सुस्त हो जाती है।

इन सब बातों के लिहाज से यही लगता है कि मनमोहन द्वारा विकास का शानदार नुस्खा तैयार करने की बुनियादी सामग्री न मिलने के लिए सोनिया गांधी की ओर उंगली उठाना 'काफी हद तक' सही है। लेकिन 'काफी हद तक' क्यों, 'पूरी तरह' क्यों नहीं? ऐसा इसलिए क्योंकि आज भारतीय अर्थव्यवस्था सिर्फ सख्त राजनीतिक फैसले न लिए जाने की वजह से रुग्ण नहीं है, वरन खराब प्रबंधन भी इसके लिए दोषी है, जिसके चलते ज्यादातर बड़ी परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं।

लेकिन इस हफ्ते हम विकास की बात क्यों कर रहे हैं, जबकि भ्रष्टाचार का मामला सुर्खियों में छाया है? ऐसा इसलिए क्योंकि विकास के साथ ही सबसे बड़ी त्रासदी जुड़ी है। सीएजी रिपोट्र्स के हालिया दस्तावेजों में बताया गया कि सरकारी खजाने को कुछ सालों में तकरीबन ७० अरब डॉलर का नुकसान हुआ। और विकास दर ९.५ फीसदी से गिरकर ५.३ फीसदी तक पहुंचने से कितना नुकसान होता है? एक साल में ७८ अरब अमेरिकी डॉलर। इसलिए यदि विकास दर तीन साल तक ५.३ फीसदी पर टिकी रहती है तो तकरीबन २३४ अरब डॉलर का नुकसान होगा। भ्रष्टाचार के जरिए सरकारी खजाने को जो नुकसान होता है, वह पूरी तरह से देश से गायब नहीं होता, यह कंपनियों में जाता है और इसमें से ज्यादातर धन का निवेश होता है, रोजगार पैदा होते हैं। लेकिन विकास की रफ्तार सुस्त होने की वजह से हमें जो धन गंवाना पड़ता है, वह हमेशा के लिए चला जाता है और इससे कहीं भी किसी की भी बेहतरी नहीं होगी। इसके लिए पहले सोनिया और उसके बाद मनमोहन, दोनों को ही दोषी ठहराया जाएगा। 

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